वृक्षायुर्वेद यानि सस्ती व सुरक्षित खेती की परम्परा

सीआईकेएस में बीते कई सालों से वृक्षायुर्वेद और ऐसे ही पुराने ग्रंथों पर शोध चल रहे हैं। यहाँ बीजों के संकलन, चयन, और उन्हें सहेजकर रखने से लेकर पौधों को रोपने, सिंचाई, बीमारियों से मुक्ति आदि की सरल पारम्परिक प्रक्रियाओं को लोकप्रिय बनाने के लिये आधुनिक डिग्रियों से लैस कई वैज्ञानिक प्रयासरत हैं। पशु आयुर्वेद, सारंगधर कृत उपवन विनोद और वराहमिरीह की वृहत्त्त संहिता में सुझाए गए चमत्कारी नुस्खों पर भी यहाँ काम चल रहा है।

बढ़ती आबादी का पेट भरने के लिये अधिक पैदावार का दवाब लगातार ज़मीन के सत्व को खत्म कर रहा है। हरित क्रान्ति की नई आँधी सोने का अंडा देने वाली मुर्गी को ही मार रही है। खेतों में बढ़ती उर्वरकों की मात्रा का ही दुष्परिणाम है कि ज़मीन के पोषक तत्व जिंक, लोहा, तांबा, मैगनीज, आदि लुप्त होते जा रहे हैं।

दूसरी तरफ कीटनाशकों के बढ़ते इस्तेमाल से खाद्य पदार्थ जहरीले हो रहे हैं। यह बात प्रमाणित हो चुकी है कि भारतीय लोग दुनिया भर के लोगों के मुकाबले कीटनाशकों के सबसे ज्यादा अवशेष अपने भोजन के साथ पेट में पहुँचाते हैं।

हमारी अर्थव्यवस्था के मूल आधार खेती व पशुपालन की इस दुर्दशा से हताश वैज्ञानिकों की निगाहें अब प्राचीन मान्यताओं और पुरातनपंथी मान लिये गए शास्त्रों पर गई है।

कुछ साल पहले थियोसोफीकल सोसायटी, चेन्नई में कोई पचास से अधिक आम के पेड़ रोगग्रस्त हो गए थे। आधुनिक कृषि-डॉक्टरों को कुछ समझ नहीं आ रहा था। तभी समय की आँधी में कहीं गुम हो गया सदियों पुराना ‘वृक्षायुर्वेद’ का ज्ञान काम आया।

सेंटर फॉर इण्डियन नॉलेज सिस्टम (सीआईकेएस) की देखरेख में नीम और कुछ दूसरी जड़ी-बूटियों का इस्तेमाल किया गया। देखते-ही-देखते बीमार पेड़ों में एकबार फिर हरियाली छा गई। ठीक इसी तरह चेन्नई के स्टेला मेरी कॉलेज में बॉटनी के छात्रों ने जब गुलमेंहदी के पेड़ में ‘वृक्षायुर्वेद’ में सुझाए गए नुस्खों का प्रयोग किया तो पता चला कि पेड़ में ना सिर्फ फूलों के घने गुच्छे लगे, बल्कि उनका आकार भी पहले से बहुत बड़ा था।

वृक्षायुर्वेद के रचयिता सुरपाल कोई एक हजार साल पहले दक्षिण भारत के शासक भीमपाल के राज दरबारी थे। वे वैद्य के साथ-साथ अच्छे कवि भी थे। तभी चिकित्सा सरीखे गूढ़ विषय पर लिखे गए उनके ग्रंथ वृक्षायुर्वेद को समझने में आम ग्रामीण को भी कोई दिक्कत नहीं आती है। उनका मानना था कि जवानी, आकर्षक व्यक्तित्व, खूबसूरत स्त्री, बुद्धिमान मित्र, कर्णप्रिय संगीत, सभी कुछ एक राजा के लिये अर्थहीन हैं, यदि उसके यहाँ चित्ताकर्षक बगीचे नहीं हैं।

सुरपाल के कई नुस्खे अजीब हैं- जैसे, अशोक के पेड़ को यदि कोई महिला पैर से ठोकर मारे तो वह अच्छी तरह फलता-फूलता है या यदि कोई सुन्दर महिला मकरंद के पेड़ को नाखुनों से नोच ले तो वह कलियों से लद जाता है। सुरपाल के कई नुस्खेे आसानी से उपलब्ध जड़ी-बूटियों पर आधारित हैं।

महाराष्ट्र में धोबी कपड़े पर निशान लगाने के लिये जिस जड़ी का इस्तेमाल करते हैं, उसे वृक्षायुर्वेद में असरदार कीटनाशक निरुपित किया गया है। भल्लाटका यानि सेमीकार्पस एनाकार्डियम का छोटा सा टुकड़ा यदि भण्डार गृह में रख दिया जाये तो अनाज में कीड़े नहीं लगते हैं और अब इस साधारण सी जड़ी के उपयोग से कैंसर सरीखी बीमारियों के इलाज की सम्भावनाओं पर शोध चल रहे हैं।

पंचामृत यानि गाय के पाँच उत्पाद- दूध, दही, घी, गोबर और गोमूत्र के उपयोग से पेड़-पौधों के कई रोग जड़ से दूर किये जा सकते हैं। ‘वृक्षायुर्वेद’ में दी गई इस सलाह को वैज्ञानिक रामचन्द्र रेड्डी और एएल सिद्धारामैय्या ने आजमाया। टमाटर के मुरझाने और केले के पनामा रोग में पंचामृत की सस्ती दवा ने सटीक असर किया।

इस परीक्षण के लिये टमाटर की पूसा-रूबी किस्म को लिया गया सुरपाल के सुझाए गए नुस्खे में थोड़ा सा संशोधन कर उसमें यीस्ट और नमक भी मिला दिया गया। दो प्रतिशत घी, पाँच प्रतिशत दही और दूध, 48 फीसदी ताजा गोबर, 40 प्रतिशत गोमूत्र के साथ-साथ 0.25 ग्राम नमक और इतना ही यीस्ट मिलाया गया। ठीक यही फार्मूला केले के पेड़ के साथ भी आज़माया गया, जो कारगर रहा।

सीआईकेएस में बीते कई सालों से वृक्षायुर्वेद और ऐसे ही पुराने ग्रंथों पर शोध चल रहे हैं। यहाँ बीजों के संकलन, चयन, और उन्हें सहेजकर रखने से लेकर पौधों को रोपने, सिंचाई, बीमारियों से मुक्ति आदि की सरल पारम्परिक प्रक्रियाओं को लोकप्रिय बनाने के लिये आधुनिक डिग्रियों से लैस कई वैज्ञानिक प्रयासरत हैं। पशु आयुर्वेद, सारंगधर कृत उपवन विनोद और वराहमिरीह की वृहत्त्त संहिता में सुझाए गए चमत्कारी नुस्खों पर भी यहाँ काम चल रहा है।

सीआईकेएस में वैज्ञानिक डॉ. के विजयलक्ष्मी अपने बचपन का एक अनुभव बताती हैं कि उनके घर पर लौकी की एक बेल में फूल तो खूब लगते थे, लेकिन फल बनने से पहले झड़ जाते थे। एक बूढ़े माली ने उस पौधे के पास एक गड्ढा खोदकर उसमें हींग का टुकड़ा दबा दिया। दो हफ्ते में ही फूल झड़ना बन्द हो गए और उस साल सौ से अधिक फल लगे।

डॉ. विजयलक्ष्मी ने इस घटना के 15 साल बाद जब वृक्षायुर्वेद का अध्ययन किया तो पाया कि हींग मूलरूप से ‘वात दोष’ के निराकरण में प्रयुक्त होती है। फूल से फल बनने की प्रक्रिया में ‘वात दोष’ का मुख्य योगदान होता है। इसकी मात्रा में थोड़ा भी असन्तुलन होने पर फूल झड़ने लगते हैं।

सनद रहे हींग भारतीय रसोई का आम मसाला है और इसका इस्तेमाल मानव शरीर में वात दोष निवारण में होता है। वृक्षायुर्वेद का दावा है कि मानव शरीर की भाँति पेड़-पौधों में भी वात, पित्त और कफ के लक्षण होते हैं और इनमें गड़बड़ होने पर वनस्पति बीमार हो जाती हैं।

इसी प्रकार मवेशियों की सामान्य बीमारियों के घरेलू इलाज के लिये रचित ‘पशु-आयुर्वेद’ भी इन दिनों खासा लोकप्रिय हो रहा है। इस प्राचीन ग्रंथ में पशुओं के जानलेवा रोग खूनी दस्तों की दवा ‘कुटजा’ को बताया गया है। ‘होलोरेना एंटीडायसेंट्रीका’ के वैज्ञानिक नाम वाली यह जड़ी बड़ी सहजता से गाँव-खेजों में मिल जामी है।

आँव-दस्त में यह बूटी इतनी सुरक्षित है कि इसे नवजात शिशु को भी दिया जा सकता है। ‘पशु-आयुर्वेद’ के ऐसे ही जादुई नुस्खों पर दो कम्पनियों ने दवाइयाँ बना कर बेचना शुरू कर दिया है।

खेती-किसानी के ऐसे ही कई हैरतअंगेज नुस्खे भारत के गाँव-गाँव में पुराने, बेकार या महज भावनात्मक साहित्य के रूप में बेकार पड़े हुए हैं। ये हमारे समृद्ध हरित अतीत का प्रमाण तो हैं ही, प्रासंगिक और कारगर भी हैं। अब यह बात सारी दुनिया मान रही है कि प्राचीन भारतीय ज्ञान के इस्तेमाल से कृषि की लागत घटाई जा सकती है। यह खेती का सुरक्षित तरीका भी है, साथ ही इससे उत्पादन भी बढ़ेगा।

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