ये मनरेगा है या फाँसी का फंदा

16 Dec 2016
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Manrega
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पहले, खासतौर से यूपीए की सरकार के लिये कुछ अच्छी और उत्साह बढ़ाने वाली बातें। यूपीए के जिस बहुचर्चित महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी कानून को विश्व बैंक ने पाँच साल पहले भारत में ‘आर्थिक विकास और गरीबी उन्मूलन में नीतिगत बाधा’ बताकर खारिज कर दिया था, उसी विश्व बैंक ने 2014 की अपनी ‘विश्व विकास रिपोर्ट’ में उसे ‘ग्रामीण क्षेत्रों में क्रांति लाने वाला कार्यक्रम’ बताकर उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की है। उसने इसे ‘सर्वसमावेशी विकास’ का मॉडल बताते हुए इसके तहत मजदूरों को किए जाने वाले नकद भुगतान की जम कर तारीफ की है। इस रिपोर्ट का कहना है कि इस कार्यक्रम की एक ‘प्रमुख उपलब्धि यह है कि इसने सूखा, बाढ़, फसल बर्बादी से पैदा होने वाले संकट में गरीब ग्रामीणों के लिये सुरक्षा के जाल के तौर पर काम किया है।’

लेकिन कड़वी हकीकत यह भी है कि ‘सुरक्षा के इस जाल’ की रस्सियां कुछ गरीबों के लिये फाँसी का फंदा बन गर्इं। ताजा खबरों के मुताबिक, महाराष्ट्र के औरंगाबाद जिले में मनरेगा के तहत काम करने वाले पाँच दिहाड़ी मजदूरों ने मजदूरी के पैसे महीनों तो क्या वर्षों तक न मिलने के कारण आत्महत्या कर ली। उन्होंने मजदूरी की थी और इस उम्मीद पर वे कर्ज लेते गए कि मजदूरी मिलते ही भुगतान कर देंगे लेकिन कर्ज का बोझ और पैसे का इंतजार इतना भारी हो गया कि उन्होंने जान ही दे दी। सरकारी कर्मचारियों और ठेकेदारों की मिलीभगत से मजदूरों के पैसे का किस तरह घोटाला किया जा रहा था, इसका खुलासा अभी तीन महीने पहले डाकघर के एक दस्तावेज से हुआ था जिसके मुताबिक 1 करोड़ रुपये जाली खातों में डाल दिए गए थे।

आत्महत्याओं की इन खबरों का स्वत: संज्ञान लेते हुए राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्रालय के सचिव के अलावा महाराष्ट्र, झारखंड, बिहार, पश्चिम बंगाल, राजस्थान, आंध्र प्रदेश और केरल की सरकारों को नोटिस भेजकर मांग की कि वे छह सप्ताह के अंदर अपनी रिपोर्ट भेजें। इन राज्यों में कहीं 27 लाख, तो कहीं 18 लाख, कहीं 13 लाख, कहीं 11 लाख, कहीं नौ लाख मनरेगा मजदूरों को मजदूरी का भुगतान न किए जाने की खबरें हैं। महाराष्ट्र से पहले झारखंड में भी 2012 में दो मनरेगा मजदूरों द्वारा इन्हीं परिस्थितियों में आत्महत्या करने की खबरें आ चुकी हैं।

ऐसा लगता है कि यह कार्यक्रम- जैसा कि पूर्व ग्रामीण विकास मंत्री, वरिष्ठ राजद नेता एवं सांसद रघुवंश प्रसाद सिंह ने ‘शुक्रवार’ से कहा- ‘बिना गार्जियन का लड़का हो गया है’। उन्होंने कहा कि ‘आप सोच सकते हैं कि जब लड़का बिना गार्जियन का हो जाता है तो वह किस तरह भटक जाता है। दरअसल, यूपीए सरकार ने इसे जितना भुनाना था, भुना लिया, अब उसे इसकी परवाह नहीं दिखती है।’ रघुवंश बाबू ने माना कि ‘इसमें वक्ती तौर पर ख़ामियाँ आ गई हैं लेकिन इसमें इतने प्रावधान हैं कि इसे जनहित में अच्छी तरह चलाया जा सकता है बशर्ते इसकी सही निगरानी हो।’

इसकी ख़ामियाँ पिछले साल नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (सीएजी) ने अपनी रिपोर्ट में भी गिनाई- योजना का पैसा दूसरे मद में खर्च करना, अस्वीकार्य कामों को हाथ में लेना, रेकॉर्डों के रखरखाव में गड़बड़ियाँ, आदि। रिपोर्ट में कहा गया है कि इस योजना के तहत एक से पाँच साल की अवधि में 4070 करोड़ रु. से ज्यादा मूल्य के 7.69 लाख काम अधूरे पाए गए, 6547 करोड़ रु. से ज्यादा खर्च ऐसे कामों पर किए गए जिनसे कोई स्थायी उपयोग की संपत्ति नहीं बनी। यही नहीं, 2252 करोड़ रु. मूल्य के ऐसे काम किए गए जिनकी स्वीकृति नहीं थी। सीएजी ने पाया कि महाराष्ट्र, बिहार, उत्तर प्रदेश तीन ऐसे राज्य हैं जहाँ देश की 46 प्रतिशत गरीब ग्रामीण आबादी बसती है लेकिन मनरेगा के तहत जारी कुल रकम का 20 प्रतिशत हिस्सा ही इन राज्यों को मिला। यही नहीं, हरेक गरीब ग्रामीण परिवार को अगर 2009-10 में साल में औसतन अगर 45 दिनों के लिये रोजगार मिल रहा था, तो 2011-12 में यह घटकर 43 दिनों के लिये ही मिला। सीएजी ने इस योजना की केंद्र द्वारा गहरी निगरानी की जरूरत पर जोर दिया।

लेकिन सीएजी की नसीहतों से कोई फर्क नहीं पड़ा। उदाहरण के लिये, ‘बीमारू’ माने जाने वाले राज्यों में सबसे बड़े उत्तर प्रदेश में साल 2013 बीतते-बीतते खबर आई कि उसे 2011-13 के बीच मनरेगा के लिये 8000 करोड़ रु. मिले, जिनमें से 450 करोड़ रु. प्रशासनिक खर्चे के लिये निर्धारित थे, बाकी रकम ग्रामीण गरीबों को साल में कम से कम 100 दिन का रोजगार न्यूनतम मजदूरी पर देने पर खर्च करनी थी लेकिन प्रदेश में इस योजना की ऑडिट रिपोर्ट बताती है कि इस बीच प्रशासनिक खर्चे के लिये निर्धारित रकम में से 150 करोड़ रु. घाटाले की भेंट चढ़ गए। घोटाले किस तरह किए गए इसका अंदाजा इस बात से लगता है कि 2 करोड़ रु. स्थानीय अखबारों को दे दिए गए। क्यों दिए गए, इसका कोई अता-पता नहीं है। अनुमान है कि राज्य में मनरेगा के तहत ठेके पर काम करने वाले 30 हजार मजदूरों को उनकी मजदूरी का भुगतान नहीं किया गया है।

बहरहाल, सीएजी रिपोर्ट आने के बाद केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश ने मनरेगा के संचालन के लिये तमाम राज्यों को नए दिशा-निर्देश जरूर जारी किए और उन्हें कहा गया कि रोजगार के लिये आवेदन अब पंचायत स्तर के रोजगार सेवकों या प्रखंड विकास पदाधिकारी के पास ही नहीं बल्कि वार्ड सदस्यों, आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं, स्कूल शिक्षकों स्वयंसेवी संगठनों के पास भी देने की इजाजत दी जाए और अर्जी की बाकायदा तारीख के साथ रसीद जारी की जाए। इस बीच, लोकसभा चुनाव करीब आते ही इस चुनाव-जिताऊ कार्यक्रम को लेकर सरकार की चिंता और सक्रियता बढ़ गई है। अब इस कार्यक्रम के तहत रोजगार कार्डधारकों को अपने यहाँ पक्का शौचालय बनवाने के लिये 10 हजार रु. की सहायता देने की व्यवस्था भी की गई है। सबसे उल्लेखनीय बात यह है कि अब मजदूरों को मजदूरी के भुगतान में 15 दिन से ज्यादा की देरी होती है तो उन्हें मजदूरी की रकम का हर्जाना 0.5 प्रतिशत प्रतिदिन की दर से देने के निर्देश दिए गए हैं। मजदूरी का भुगतान ‘हाजिरी’ लगाने के आधार पर नहीं बल्कि काम के आकलन के आधार पर किया जाएगा। चुनाव के बहाने ही सही, ग्रामीण मजदूरों के हित में सचमुच काम हो तो बुरा क्या है।

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