यह बिजली बनेगी कि गिरेगी

हिमाचल का चंबा जिला अपने खूबसूरत पहाड़ों और नदियों के लिए मशहूर है। भूकंप की दृष्टि से संवेदनशील होने के बावजूद औद्योगिक मानकों को ताक पर रखकर वहां अंधाधुंध पनबिजली परियोजनाएं चलाई जा रही हैं। इससे न केवल प्रकृति बल्कि, इंसान और जीव-जंतुओं के जीवन के लिए खतरा पैदा हो गया है। जनांदोलनों की अनसुनी की जा रही है। इस मामले का जायजा ले रहे हैं प्रवीण कुमार सिंह।

बजौली-होली में रावी नदी के तट पर जीएमआर कंपनी के बन रहे 180 मेगावाट की पनबिजली परियोजना को लेकर लोगों में विरोध है। इस परियोजना का टनल पंद्रह किलोमीटर का होगा, जिसके लिए उतनी बड़ी सुरंग बनानी पड़ेगी। प्रस्तावित सुरंग के ऊपर होली, न्याग्रा, दिओल, कलेठ समेत पच्चीस गांव है। गांव के लोगों को भय है कि विस्फोट होने से इनके आशियाने उजड़ जाएंगे और पानी के स्रोत सूख जाएंगे। अगर कंपनी टनल नदी से बाएं किनारे की जगह दाएं किनारे से निकालती तो शायद इतना विरोध नहीं होता। क्योंकि इस तरफ कोई गांव नहीं है। लेकिन दूरी बढ़ जाएगी। यह कंपनी को मंजूर नहीं। ‘पहाड़ का पानी और पहाड़ की जवानी पहाड़ के काम नहीं आती है।’ यह कहावत एक विकट त्रासदी की ओर संकेत करती है। यों तो ये कल-कल, छल-छल करती नदियां पहाड़ के लोगों के लिए जीवनदायिनी मानी जाती हैं, लेकिन हिमाचल के चंबा जिले के पहाड़वासियों के लिए यह एक बड़ी समस्या बन गई हैं। कुसूर न पहाड़ का है, न जंगल का, न नदी का और न वहां के भोले-भाले बाशिंदों का। यहां की मूल नदी रावी है, जिसकी शाखाएं चनाब, साहो, तुदीन वगैरह हैं। हिमाचल में पहाड़, जंगल, झरने का कुदरती सौंदर्य बड़ा ही मनोहारी है। फिर चंबा के बारे में क्या कहा जाए! चंबा वह जगह है जहां देश की दूसरी पनबिजली परियोजना की शुरुआत हुई थी। सिदराटांग (दार्जलिंग) के बाद चंबा में राजा भूरी सिंह ने 1931 में पनबिजली परियोजना लगवाई थी। तब यह यहां के लोगों के जीवन में एक नई रोशनी लेकर आई थी। आज बयासी साल बाद पनबिजली परियोजनाएं चंबावासियों के लिए अभिशाप बन गई है। चंबा में छोटे और बड़े सोलह पनबिजली परियोजनाएं हैं और 133 पनबिजली परियोजनाएं प्रस्तावित और अर्द्धनिर्मित हैं। दूसरी श्रेणी में दस परियोजनाएं हैं। एक परियोजना बनाने में सैकड़ों पेड़ काटने पड़ते हैं, जिसे लेकर पर्यावरणविद् चिंतित हैं।

चंबा जिला मुख्यालय से 25 किलोमीटर दूर साहो ग्राम में नदी के तट पर निजी कंपनी की पनबिजली परियोजना का निर्माण कार्य चल रहा है। निर्माण के दौरान निकला मलबा नदी में बहाया जा रहा है, जिससे नदी की चौड़ाई कम हो गई है। परियोजना स्थल पर पहुंचने के लिए रास्ता नहीं था तो कंपनी ने पहाड़ काट कर उसका मलबा नदी में डाल कर करीब सोलह फुट चौड़ी और एक किलोमीटर लंबी सड़क बनाई। यह किस नियम से बनी है न कोई बताने वाला है और न संबंधित विभाग के अधिकारियों को कोई फिक्र। विद्युत परियोजना के लिए पानी चाहिए, जिसके लिए ऊपर उथल सिंगेरा से इसी नदी से नहर निकाली हुई है जिसका पानी अब तक पीने और सिंचाई के काम आता था। अब टनल के द्वारा पानी पनबिजली परियोजना में गिरेगा। आने वाले समय में कितना पानी यहां के लोगों को मिलेगा, यह परियोजना शुरू होने के बाद पता चलेगा। पहले यहां चार घराट (पनचक्की) थे, अब बंद हो चुके हैं।

जिला मुख्यालय से बीस किलोमीटर दूर भरमौर मार्ग पर 240 मेगावाट का चमेरा-3 पनबिजली परियोजना का काम चल रहा है। यह परियोजना राष्ट्रीय जल विद्युत निगम की है। इसके टनल की लंबाई पंद्रह किलोमीटर है, जिसके लिए पहाड़ में विस्फोट करके सुरंग बनाई गई है।सुरंग के ऊपर कई गांव बसे हुए हैं। सुरंग बनाने के लिए किए गए विस्फोट से इन गांवों के परंपरागत पानी के स्रोत खत्म हो गए हैं। बीते साल 9 अप्रैल को रिसाव हो गया, जिससे मोखर ग्राम में पानी फैल गया। जमीन दल-दली हो गई। उसमें कई जानवर फंस गए। बहुत सारे घर गिर गए। गांव के लोग भयभीत होकर अपना घर-बार छोड़कर पलायन कर गए। आज भी गांव के दोनों तरफ पानी बह रहा है। इस अप्राकृतिक नुकसान का लोगों को मुआवजा भी नहीं मिला। गांव के ललित ठाकुर और देवराज सिवाय दुख जताने के कुछ बोल नहीं पाते हैं।

चांजू में भी एक परियोजना पर काम चल रहा है। इसके निर्माण से इतना धूल गर्दा उड़ रहा है कि खेतों और घास के मैदान में दो-दो फीट तक इसकी परत जम गई है। यहां टनल ले जाने के लिए सुरंग बन रही है। सुरंग के ऊपर कठवार गांव है। गांव के बशीर मोहम्मद और धीरज बताते हैं कि कंपनी वाले सुरंग बनाने के लिए रात में भी विस्फोट कर देते हैं। एकाएक इतनी तेज आवाज से लोग डर जाते हैं। छोटे बच्चे तीव्र आवाज से ज्यादा परेशान हो जाते हैं। विस्फोट से कई मकान क्षतिग्रस्त हो गए। गांव की निवासी सारा देवी बताती हैं कि विस्फोट से पानी के चश्मे सूख गए हैं। पानी की बड़ी परेशानी हो गई है।

चंबा शहर से पंद्रह किलोमीटर पलयूर गांव है। गांव में पेयजल के परंपरागत पानी के स्रोत नदी और चश्मे थे। इसके अलावा गांव से नहर भी गुजरती है। वहां पांच साल पहले नदी के किनारे घाटी में एक निजी कंपनी ने बिजली परियोजना लगा दी। आज वहां हालत यह है कि नहर और नदी का काफी पानी टनल से परियोजना में चला जाता है। टनल लगाने के लिए किए गए विस्फोट से पानी के स्रोत सूख गए हैं। आजकल वहां पानी की बड़ी समस्या हो गई है। नदी में पानी कम हो गया है। नदी में सफेद पत्थर ही पत्थर दिख रहा है।

बजौली-होली में रावी नदी के तट पर जीएमआर कंपनी के बन रहे 180 मेगावाट की पनबिजली परियोजना को लेकर लोगों में विरोध है। इस परियोजना का टनल पंद्रह किलोमीटर का होगा, जिसके लिए उतनी बड़ी सुरंग बनानी पड़ेगी। प्रस्तावित सुरंग के ऊपर होली, न्याग्रा, दिओल, कलेठ समेत पच्चीस गांव है। गांव के लोगों को भय है कि विस्फोट होने से इनके आशियाने उजड़ जाएंगे और पानी के स्रोत सूख जाएंगे। अगर कंपनी टनल नदी से बाएं किनारे की जगह दाएं किनारे से निकालती तो शायद इतना विरोध नहीं होता। क्योंकि इस तरफ कोई गांव नहीं है। लेकिन दूरी बढ़ जाएगी। यह कंपनी को मंजूर नहीं।

चंबा से सत्तर किलोमीटर दूर तरेला में गिन्नी ग्लोबल कंपनी का पांच मेगावाट का पनविद्युत परियोजना लगभग बनकर तैयार है। कंपनी ने पहले ओपन पावर चैनल लगाया था। जिसमें रिसाव हो गया। तब कंपनी ने टनल लगाने का प्लान बनाया। टनल के लिए सुरंग चाहिए। सुरंग बनाने की अनुमति केंद्रीय खनन मंत्रालय देता है। कंपनी ने बिना अनुमति के ही सुरंग बनानी शुरू कर दी। इसके लिए विस्फोट होने लगे तो पूरा क्षेत्र हिल उठा। इसका असर तीन किलोमीटर तक था।

गांव के राहुल महाजन कहते हैं कि जब हमने प्रशासनिक अधिकारियों से इसकी शिकायत की तो उनका जवाब था कि राज्य सरकार से अनुमति मिली हुई है। सत्यास ग्राम के विनोद कुमार ने सूचना के अधिकार से सुरंग बनाने की अनुमति के बारे में जानकारी मांगी तो उत्तर मिलने में साल भर लग गए।

सरकार पनबिजली परियोजनाओं के लिए अपनी ही रिपोर्टों और संस्तुतियों को भूल गई है। 2009 में हिमाचल हाइकोर्ट के निर्देश पर बनी शुक्ला कमेटी ने रिपोर्ट दी थी कि ‘एक परियोजना से दूसरी परियोजना की दूरी कम से कम पांच किलोमीटर से ज्यादा हो,सात हजार फुट से ऊपर पनबिजली परियोजना न बनाई जाए, जब तक उसका उसका गहन अध्ययन न हो जाए।’ इस पैमाने को लागू नहीं किया गया वन विभाग ने जवाब दिया कि कोई अनुमति नहीं दी गई, लेकिन तब तक काम खत्म हो चुका था और टनल लग गया। विस्फोट के दौरान पहाड़ उखड़ गया, जिसके कारण वर्षा होने पर पत्थर गिरने लगते हैं। इस परियोजना से फायदा किसको होगा, ये अप्रत्यक्ष है। लेकिन परियोजना के चलते पैंतीस घराट (पनचक्की) बंद हो गए। कंपनी ने कुछ को परियोजना में काम दिया, लेकिन ज्यादातर बेरोजगार हैं। जडेरा ग्राम में साल नदी के होल नाला पर चार मेगावाट की पनबिजली परियोजना प्रस्तावित है, जिसके खिलाफ स्थानीय लोग दस साल से संघर्ष कर रहे हैं। जडेरा के पूर्व उपप्रधान मान सिंह का कहना है कि इस बिजली परियोजना के लगने पर यहां चल रहे पच्चीस घराट बंद हो जाएंगे, उनके रोजी-रोटी का क्या होगा और इस नाले के अलावा हमारे पास पेयजल और सिंचाई का दूसरा विकल्प नहीं है। बताइए, हम क्या करें, यह जो मनोरम घाटी देख रहे हैं, क्या वह रह पाएगी? यहां के लोगों में भारी आक्रोश और आंदोलन की वजह से गांव में जनसुनवाई लगाई, जिसमें एडीएम मौजूद थे। वहां लोगों ने बिजली परियोजना का बहुत विरोध किया और इससे नुकसान के बारे में बताया। एडीएम ने परियोजना से नुकसान और लोगों के विरोध की वास्तविक रिपोर्ट शासन और सरकार को भेजी, लेकिन सरकार ने उस रिपोर्ट को महत्व नहीं दिया।

आरोप है कि कंपनी से जुड़े अराजक तत्वों ने पिछले साल आंदोलन के अग्रणी पर्यावरणविद् रतनचंद, मान सिंह, लक्ष्मण, हेमराज, मनोज पर घातक हमला किया, जिसमें ये लोग गंभीर रूप से घायल हो गए। इतना ही नहीं, कंपनी ने इन लोगों पर फर्जी तौर पर कई आपराधिक मुकदमे दर्ज कराकर परेशान किया। हिमाचल में पनबिजली परियोजना के खिलाफ चल रहे जन आंदोलनों में सक्रिय युवा सामाजिक कार्यकर्ता राहुल सक्सेना (हिमधारा) कहते हैं, ‘सरकार ने पनबिजली कंपनियों के लिए यहां की सभी नदियों और नालों को बेच दिया है। यहां के पानी पर पूंजीपतियों का कब्जा हो गया है।’ अगर हम अपने हक के लिए आंदोलन करते हैं तो सरकार और कंपनियां दमन करती हैं। इन परियोजनाओं से कितना पर्यावरणीय क्षति हुई है, उसका सरकारी तौर पर कोई आकलन नहीं हैं। बल्कि अंधाधुंध परियोजनाएं पास हो रही हैं और बन रही हैं।...’

इन सुरगों पर आधारित पनबिजली परियोजनाओं से कितना आर्थिक लाभ हो रहा है यह तो राजस्व विभाग के फाइलों में होगा, लेकिन हानि की बात करे तो कई जगहों पर, जहां पन-परियोजनाएं लगी हैं, वहां पानी के स्रोत सूख गए हैं। भरमौर क्षेत्र की लाहल पंचायत (खड़ी ग्राम) में विस्फोट से पानी के स्रोत सूख गए हैं। जबकि घर-घर में पानी आता था। आज हालत यह है कि टैंकर से पानी आता है।

सरकार पनबिजली परियोजनाओं के लिए अपनी ही रिपोर्टों और संस्तुतियों को भूल गई है। 2009 में हिमाचल हाइकोर्ट के निर्देश पर बनी शुक्ला कमेटी ने रिपोर्ट दी थी कि ‘एक परियोजना से दूसरी परियोजना की दूरी कम से कम पांच किलोमीटर से ज्यादा हो,सात हजार फुट से ऊपर पनबिजली परियोजना न बनाई जाए, जब तक उसका उसका गहन अध्ययन न हो जाए।’ इस पैमाने को लागू नहीं किया गया।

होली-बजौली से कुठेर परियोजना की दूरी दो किलोमीटर से कम है। उसी के नीचे चमेरा-3 प्रोजेक्ट है उसकी दूरी करीब एक किलोमीटर है। साहो क्षेत्र में पांच किलोमीटर की दूरी में तीन परियोजनाएं बन रही हैं। इन परियोजनाओं के कारण नदियों का प्राकृतिक स्वरूप बिगड़ गया है। कई जगह इन पनबिजली परियोजनाओं ने नदी की धारा को मोड़ दिया है और कई जगह अवरोध भी पैदा कर दिया है, जिससे पानी की प्राकृतिक गति खत्म होती जा रही है और यहां पाई जाने वाली मछली महाशीर और ट्रॉट का प्रजनन कम हो गया है।

सरकार इन परियोजनाओं के बदौलत ऊर्जा प्रदेश बनाने का सतरंगी सपना देख रही है। जबकि यहां के पारंपरिक जल संस्कृति और संरक्षण जैसी बातों को भूला दिया गया है।

संकट गहराएगा


समाजसेवी रतनचंद से प्रवीण की बातचीत

पनबिजली परियोजनाओं का विरोध क्यों हो रहा है?
इन परियोजनाओं का मूल दर्शन आम जनों के जीवन और जीविका की कीमत पर ‘विकास’ का है। इनमें से हरेक परियोजना अदूरदर्शी और आस-पास के पर्यावरण के लिए विनाशकारी है। जैव विविधता पर बुरा असर पड़ा है। कई वनस्पतियां और जीव-जंतु लुप्त हो गए हैं। आज यहां जलस्तर काफी नीचे चला गया है। भविष्य में पानी का संकट गहराने वाला है। स्थानीय संसाधन लुप्त होते जा रहे हैं। जिसका लोगों की जीविका पर असर पड़ना लाजमी है।

सरकार बिजली परियोजनाओं से लोगों को रोजगार और विकास करने का दावा कर रही है।?

परियोजनाओं के कारण न जाने कितने घराट (पनचक्की) बंद हो गए, उन पर आश्रित बेरोजगार हो गए। पानी की प्राकृतिक गति बिगड़ने से मछलियों का प्रजनन बहुत कम हो गया, मछली पकड़ कर जीविकोपार्जन करने वाले बहुत से लोग बेरोजगार हो गए। कृषि और वन आधारित स्रोत खत्म होते जा रहे हैं। एक परियोजना में कितने लोग काम करते हैं, माइक्रो प्रोजेक्ट में अधिकतम बीस लोग और दक्ष व्यक्ति चाहिए। यहां कितने प्रशिक्षित लोग हैं। सरकारी तौर पर इन परियोजनाओं से कितने लोगों को रोजगार मिला है और रोजगार का सृजन हुआ, इसका कोई आकलन नहीं है। ये परियोजनाएं कुछ समय तक काम देती हैं, फिर दूर स्थानांतरण के बहाने नौकरी से बाहर कर देती हैं। विकास की बात कोरा झूठ है।

यहां रोज़गार और विकास का और क्या विकल्प हो सकता है?
जंगल के प्रति लोगों में जागरूकता पैदा की जाए और सहकारी समितियां बनाकर इसकी वनोपज को निकालने दिया जाए। जड़ी-बूटी, बाग़वानी, मछली पालन, फूलों के बारे में लोगों को प्रशिक्षित किया जाए। पर्यटन की अपार संभावना है। इसमें काफी लोगों को रोज़गार मिल सकता है।

Posted by
Get the latest news on water, straight to your inbox
Subscribe Now
Continue reading