यह नहीं कह सकते, मनरेगा से होता ही है गरीबों का भला


सरकार (ग्रामीण विकास मंत्रालय) ने कहा है कि मनरेगा के पहले पूर्ण वर्ष 2009-10 के दौरान एक सूखा वर्ष, जिसने गरीबों की आय को काफी प्रभावित किया (2015-16 की तरह) के 2.84 बिलियन श्रम दिवसों का सृजन किया गया। खुशकिस्मती की बात है कि हम 2009-10 के लिये ग्रामीण विकास मंत्रालय के दावों की एनएसएस परिवार सर्वे के साथ जाँच कर सकते हैं, जिसमें परिवारों से मनरेगा कार्य दिवसों की संख्या के बारे में परिवार के सदस्यों से जानकारी प्राप्त की गई। भारत को लगातार दो वर्ष सूखे का सामना करना पड़ा है और इससे ग्रामीण आय खासकर गरीबों की आय को लेकर चिन्ता पैदा हो गई है। गरीबी-उन्मूलन के लिये भारत सरकार ने विभिन्न योजनाओं के साथ प्रयोग किया है और जो दो योजनाएँ टिकाऊ साबित हुई हैं। वे हैं- सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) और मनरेगा।

कई कार्यक्रम और संस्थान लम्बे समय तक टिके रह जाते हैं, पर इसका यह अर्थ नहीं कि उन्हें बरकरार रखा जाना चाहिए। मैं लम्बे समय से कहता आ रहा हूँ कि दुनिया में जो चार सबसे अधिक भ्रष्ट संस्थान हैं, उनमें तीन भारत में हैं। भ्रष्ट संस्थानों की मेरी रैंकिंग इस प्रकार है- विश्व फुटबॉल संस्थान फीफा का स्थान इसमें पहला है। इससे बहुत पीछे भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड (बीसीसीआई) भी नहीं है। तीसरा स्थान पीडीएस को जाता है, और चौथे स्थान पर मनरेगा है। भ्रष्टाचार के लिहाज से गरीबी-उन्मूलन की ये दोनों योजनाएँ समान रूप से बुरी हैं, लेकिन पीडीएस ज्यादा भ्रष्ट कार्यक्रम है और लम्बे समय से टिका भी हुआ है।

जानकर प्रसन्नता होती है कि पहले दोनों संस्थानों को अब सार्वभौमिक रूप से कई न्यायिक प्रणालियों भ्रष्ट मान लिया गया है। भ्रष्टाचार में संलिप्त अन्तिम दोनों कार्यक्रम दो वजहों से अपराधी ठहराए जाने से बच गए हैं।

पहली बात तो यह कि ये दोनों योजनाएँ गरीबों की ओर लक्षित हैं और भले ही क्रियान्वयन में न हो पर प्रयोजन के रूप में इनका लक्ष्य ‘नेक’ है। दूसरी बात यह कि भारत जैसे विशाल, विविध देश में ऐसे कुछ राज्य होंगे, जहाँ भ्रष्टाचार कम होगा और योजना का प्रदर्शन बढ़िया होगा। इससे इनका बचाव करने को इन्हें अपवाद के रूप में उद्धृत करने का अवसर प्राप्त हो जाता है।

नीतिगत लिहाज से हमारी दिलचस्पी गरीबों को कुशल तरीके से आय के हस्तान्तरण में होनी चाहिए। मैं इस लेख में मनरेगा के विभिन्न पहलुओं की चर्चा करुँगा। पीडीएस पर चर्चा को दूसरे लेख के लिये छोड़ दूँगा।

मनरेगा का लक्ष्य क्या है? किसी भी परिवार को आय का समर्थन मुहैया कराना जो ‘गड्ढों की खुदाई करने उन्हें भरने, सड़कों का निर्माण करने आदि जैसे ‘कमरतोड़’ कामों से जुड़े हों। इस कार्यक्रम का प्राथमिक लक्ष्य बेहद निर्धन परिवार हैं। लेकिन यह योजना इस लक्ष्य को अर्जित कर पाने में कितनी सफल हो पाई है? ज्यादा नहीं और वास्तव में पीडीएस की तरह ही (अधिक व्यावहारिक तरीके से कहें तो बुरी) रही है। हम कैसे जान सकते हैं कि मनरेगा या इस लिहाज से कोई भी गरीबी-उन्मूलन कार्यक्रम कितना अच्छा काम कर रहा है? यह इस पर निर्भर करता है कि सरकार इस मसले पर क्या कहती है।

श्रम दिवसों के हिसाब में विसंगति


सरकार (ग्रामीण विकास मंत्रालय) ने कहा है कि मनरेगा के पहले पूर्ण वर्ष 2009-10 के दौरान एक सूखा वर्ष, जिसने गरीबों की आय को काफी प्रभावित किया (2015-16 की तरह) के 2.84 बिलियन श्रम दिवसों का सृजन किया गया। खुशकिस्मती की बात है कि हम 2009-10 के लिये ग्रामीण विकास मंत्रालय के दावों की एनएसएस परिवार सर्वे के साथ जाँच कर सकते हैं, जिसमें परिवारों से मनरेगा कार्य दिवसों की संख्या के बारे में परिवार के सदस्यों से जानकारी प्राप्त की गई।

यह संख्या ग्रामीण विकास मंत्रालय के दावों की तुलना में लगभग आधी (52 फीसद) 1.47 बिलियन थी। 2009-10 में मनरेगा के प्रदर्शन के बारे में दो बातें दर्ज की जा सकती हैं। पहली, 48 फीसद श्रम दिवसों का कोई हिसाब नहीं है अर्थात उनकी गिनती परिवारों ने खुद ही नहीं की।

दूसरे शब्दों में, सरकार के पास निश्चित रूप से मनरेगा के तहत किये गए कार्य (और अदा की गई धनराशि) का समर्थन करने के लिये कागजी साक्ष्य थे, लोगों (मध्य वर्ग, गरीब या निर्धनतम) को ग्रामीण विकास मंत्रालय से इन अदायगियों को प्राप्त करने का कोई स्मरण नहीं था। आर्थिक शब्दावली में ऐसे ‘लुप्त’ रोजगार को ‘राजस्व रिसाव’ कहते हैं। राजनीतिक वैज्ञानिक इसे व्यवसाय करने की लागत कहते हैं। समाज शास्त्री इसे अच्छे इरादे कहते हैं।

लेकिन अभी प्रतीक्षा कीजिए। जिन 52 फीसद श्रम दिवसों पर ग्रामीण विकास मंत्रालय एवं एनएनएस, दोनों सहमत हैं कि उन दिनों वास्तव में कार्य हुए, उन गरीब परिवारों को कितने प्रतिशत पेमेंट प्राप्त हुए जिन्हें तेंदुलकर की गरीबी रेखा के अनुसार, गरीब परिभाषित किया गया है? केवल 42 प्रतिशत। दूसरे शब्दों में मनरेगा पेमेंट का 58 फीसद गैर निर्धनों को गया।

2011-12 के लिये, हमारे पास मैरीलैंड-एनसीएईआर परिवार सर्वे के परिणाम हैं। इस सर्वे के परिणाम संकेत देते हैं कि मनरेगा के तहत मुहैया कराए गए हर 100 रोजगार का बेहद उच्च अर्थात 75 प्रतिशत तक गैर निर्धनों को प्राप्त हुआ। इस तय पर भी गौर करने की जरूरत है कि मनरेगा की आय गरीबों के लिये उनकी निर्धनता से मुक्ति पाने के लिये पर्याप्त नहीं हो सकती है।

एनएसएस 2009-10 में मनरेगा गरीबी में 2.2 प्रतिशत अंक तक कमी लाने में सक्षम हुआ; 2011-12 में गरीबों के एक निम्न हिस्से (25 बनाम 42 प्रतिशत) तक पहुँच के बावजूद मैरीलैंड-एनसीएईआर परिवार सर्वे दावा करता है कि मनरेगा 6.7 प्रतिशत गरीबी कम करने में सक्षम रहा अर्थात उपलब्धि स्तर के तीन गुने से अधिक की प्राप्ति दो वर्ष पहले ही अर्जित कर ली गई।

गरीबी मात्र 1.1 फीसद घटी


हम इसी मैरीलैंड-एनसीएईआर परिवार सर्वे का उपयोग करते हुए पाते हैं कि मनरेगा 2011-12 में गरीबी में केवल 1.1 प्रतिशत अंक की कमी लाने में ही सक्षम हुआ था। एक ही आँकड़े और एक ही वर्ष के लिये गरीबी में कमी लाने के दो आकलनों में बड़े अन्तर का एक स्पष्टीकरण इस प्रकार है।

गरीबी में कमी के प्रभाव का दो में से एक प्रकार से अनुमान लगाया जा सकता है : या तो कार्यक्रम के समग्र प्रभाव का अनुमान लगाया जाता है (अर्थात, व्ययों से सम्पूर्ण गरीबी में कितनी कमी आई; यह हमारी पद्धति है) या कार्यक्रम के गरीबी-उन्मूलन का केवल उन्हीं लोगों के बीच अनुमान लगाना जिन्होंने कार्यक्रम में हिस्सा लिया है (जैसाकि मैरीलैंड-एनसीएईआर परिवार अध्ययन में किया जाता है)। 6.7 प्रतिशत अंक की कमी उन परिवारों के लिये है, जिन्हें कुछ सकारात्मक मनरेगा पेमेंट प्राप्त हुए और जो प्रारम्भ से ही निर्धन थे।

ऐसे परिवार ग्रामीण परिवारों के केवल 17 फीसद ही थे और इन परिवारों में गरीबी में 6.7 प्रतिशत अंकों की गिरावट आई। इस प्रकार, सभी ग्रामीण परिवारों के लिये गरीबी में 1.1 प्रतिशत अंक की कमी आई होती-बिल्कुल वही जो हमने ऊपर कहा है। निष्कर्ष के रूप में, दो विभिन्न सर्वे और दो विभिन्न वर्षों के दौरान मनरेगा की प्रभावोत्पादकता या गरीबी कम करने की क्षमताएँ बेहद निम्न रही हैं (और इस प्रकार, यह काफी भ्रष्ट रही है)। हकदार गरीबों को मनरेगा के पेमेंट ने 16.3 मिलियन व्यक्तियों को 2009-10 के दौरान गैर-निर्धन बना दिया।

इस नीति की लागत : एक व्यक्ति को एक वर्ष के लिये गरीब न बनने देने के लिये 24,000 रुपए है। 2011-12 का अनुमान 2009-10 की तुलना में दोगुनी; लगभग 40,500 रुपए रही है। सचमुच, भारत में किसी गरीबी-उन्मूलन कार्यक्रम (पीडीएस या मनरेगा) के लिये यह स्तर सर्वाधिक है। तेंदुलकर की गरीबी की परिभाषा के अनुसार, किसी व्यक्ति को निर्धनता के दायरे से बाहर निकालने के लिये, जो लगभग 10,000 रुपए बैठता है, इन दोनों अनुमानों का औसत एक साल में 32,000 रुपए है।

औसत गरीबी अन्तराल (गरीबों की औसत आय और गरीबी रेखा के बीच का अन्तर) सालाना 1700 रुपए का है। केवल मनरेगा के माध्यम से ही एक औसत गरीब व्यक्ति को गैर-निर्धन बनाने का सरकारी खर्च 32,000 रुपए या इसका 19 गुना (32,500/1700) है।

इसे अलग तरीके से कहा जाये तो पूर्ण लक्ष्य अर्जित करने के लिये (275 मिलियन में से प्रत्येक गरीब 1700 रुपए प्राप्त करते हैं), सरकार को सालाना आधार पर तेंदुलकर की गरीबी की परिभाषा के अनुसार, किसी व्यक्ति को निर्धनता के दायरे से बाहर निकालने के लिये 47,000 करोड़ रुपए खर्च करने पड़ते हैं, या लगभग इतना ही जितना सरकार केवल मनरेगा पर खर्च करती है। इसलिये अगली बार जब आप मनरेगा का बचाव करें तो विचार करें कि इसे अस्वीकार कर कितने गरीबों की कितनी अधिक मदद की जा सकती है। इसकी जगह आप सभी गरीबों को नकदी का हस्तान्तरण क्यों नहीं करते बजाय उस गरीब विशेष के जो सुनियोजित इरादों वाले मनरेगा के जाल में फँस जाता है?

खारिज करने के तर्क


1. भ्रष्टाचार मामले में मनरेगा देश में चौथे स्थान पर है
2 मनरेगा के प्रदर्शन के बारे में दो बातें दर्ज की जा सकती हैं। पहली, 48 फीसद श्रम दिवसों का कोई हिसाब नहीं हैं।
3. केवल मनरेगा के माध्यम से ही एक औसत गरीब व्यक्ति को गैर-निर्धन बनाने का सरकारी खर्च 32,000 रुपए या इसका 19 गुना (32,500/1,700) है।

लेखक प्रख्यात आर्थिक विश्लेषक हैं।

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