यह वक्त भविष्य सँवारने का है


देश में इस समय गर्मी चरम पर है और साथ ही आजादी के बाद के भयंकरतम सूखे की त्रासदी भी विकट रूप से सामने आ रही है। ऐसी विपरीत परिस्थितयों में भी कुछ गाँव-मजरे ऐसे भी हैं जो रेगिस्तान में ‘नखलिस्तान’ की तरह इस जलसंकट से निरापद हैं। असल में वे लोग पानी जैसी जरूरतों के लिये सरकार पर निर्भरता और प्रकृति को कोसने की आदतों से पहले ही मुक्त हो चुके थे।

ये वे लोग थे जिन्होंने आज की बड़ी-बड़ी इंजीनियरिंग की डिग्री धारी ज्ञान की बनिस्पत अपने पूर्वजों के देशज ज्ञान पर ज्यादा भरोसा किया। पानी की कमी के चले पयालन, प्रदर्शन आत्महत्या जैसी बहुत सी खबरें इस समय तैर रही हैं, लेकिन यह समय हताशा या निराशा का नहीं अपने आने वाले दिनों को पानीदार बनाने का है। जो लोग इस समय 45 डिग्री तापमान के कारण सूख गए ताल-तलैयों, नदी-नालों को सँवारने में लग गए हैं वे आने वाले सालों में पानी से पैदा दिक्कतों से मुक्ति का यज्ञ कर रहे हैं।

बुन्देलखण्ड में ब्रितानी हुकुमत में अंग्रेजी पोलिटिकल एजेंट का मुख्यालय रहे नौगांव शहर के जब सारे नलकूप सूख गए व पानी मिलने की हर राह बन्द हो गई तो वहाँ के समाज ने एक स्थानीय छोटी सी नदी को सहेजने का जिम्मा खुद उठा लिया। बिलहरी से निकलकर भडार तक जाने वाली कुम्हेडी नदी बीते कई-कई दशकों से गन्दगी-रेत व गाद के चलते चुक गई थी। अब लोगों ने अपना चंदा जोड़ा व उसकी सफाई व उस पर एक स्टापडैम बनाने का काम शुरू कर दिया।

पन्ना के मदनसागर को अपने पारम्परिक रूप में लौटाने के लिये वहाँ का समाज भरी गर्मी में सारे दिन कीचड़ में उतर रहा है। सनद रहे कोई 75 एकड़ के इस तालाब का निर्माण सन् 1745 के आसपास हुआ था। इस तालाब में 56 ऐसी सुरंगे बनाई गई थीं जो शहर की बस्तियों में स्थित कुओं तक जाती थीं व उन्हें लबालब रखती थीं। आधुनिकता की आँधी में ये सब चौपट हो गया था। आज यहाँ बच्चे अपनी बचत व जन्मदिन में मिले पैसों को इस कार्य के लिये दान कर रहे हैं।

बस्तर के दलपतसागर तालाब को कंक्रीट का जंगल बनने से बचाने को पूरा समाज लामबन्द हो गया है। झारखण्ड से लेकर मालवा तक ऐसे ही उदाहरण सामने आ रहे है। उ.प्र. के बुन्देलखण्ड के सभी जिलों में राज्य सरकार ने छोटे किसानों के खेतों में तालाब बनाने की शुरुआत कर दी है जिसके तहत महोबा जिले में 500 और शेष जिलों- झांसी, ललितपुर, चित्रकूट, जालौन और बांदा में ढाई-ढाई सौ तालाबों की खुदाई का काम किसानों ने भरी धूप में पूरा कर दिया है। यदि इसमें पानी भर जाता है तो एक एकड़ के खेत में हर तालाब दो बार तराई कर सकेगा।

आमतौर पर हमारी सरकारें बजट का रोना रोती हैं कि पारम्परिक जल संसाधनों की सफाई के लिये बजट का टोटा है। हकीकत में तालाबों की सफाई और गहरीकरण अधिक खर्चीला काम नहीं है, ना ही इसके लिये भारी-भरकम मशीनों की जरूरत होती है। यह सर्वविदित है कि तालाबों में भरी गाद, सालों साल से सड़ रही पत्तियों और अन्य अपशिष्ट पदार्थों के कारण ही उपजी है, जो उम्दा दर्जे की खाद है।

रासायनिक खादों ने किस कदर जमीन को चौपट किया है? यह किसान जान चुके हैं और उनका रुख अब कम्पोस्ट व अन्य देशी खादों की ओर है। किसानों को यदि इस खादरूपी कीचड़ की खुदाई का जिम्मा सौंपा जाये तो वे सहर्ष राजी हो जाते हैं। उल्लेखनीय है कि राजस्थान के झालावाड़ जिले में ‘खेतों में पालिश करने’ के नाम से यह प्रयोग अत्यधिक सफल व लोकप्रिय रहा है।

जल-संकट से जूझ रहे समाज ने नदी को तालाब से जोड़ने, गहरे कुओं से तालाब भरने, पहाड़ पर नालियाँ बनाकर उसका पानी तालाब में जुटाने, उपेक्षित पड़ी झिरिया का पानी तालाब में एकत्र करने जैसे अनगिनत प्रयोग किये हैं और प्रकृति के कोप पर विजय पाई है। यह जरूरी है कि लोग सरकार पर निर्भरता छोड़कर घर से निकलें, तपती गर्मी में अपने मुहल्ले-कस्बों के पारम्परिक जल संसाधनों- तालाब, बावड़ी, कुओं आदि से गाद निकालने, गहरीकरण व मरम्म्त का काम करें।

कर्नाटक में समाज के सहयोग से ऐसे कोई 50 तालाबों का कायाकल्प हुआ है, जिसमें गाद की ढुलाई मुफ्त हुई, यानी ढुलाई करने वाले ने इस बेशकीमती खाद को बेचकर पैसा कमाया। इससे एक तो उनके खेतों को उर्वरक मिलता है, साथ-ही-साथ तालाबों के रखरखाव से उनकी सिंचाई सुविधा भी बढ़ती है। सिर्फ आपसी तालमेल, समझदारी और अपनी परम्परा तालाबों के संरक्षण की दिली भावना हो तो, न तो तालाबों में गाद बचेगी न ही सरकारी अमलों में घूसखोरी की कीच होगी।

जल-संकट से जूझ रहे समाज ने नदी को तालाब से जोड़ने, गहरे कुओं से तालाब भरने, पहाड़ पर नालियाँ बनाकर उसका पानी तालाब में जुटाने, उपेक्षित पड़ी झिरिया का पानी तालाब में एकत्र करने जैसे अनगिनत प्रयोग किये हैं और प्रकृति के कोप पर विजय पाई है।

यह जरूरी है कि लोग सरकार पर निर्भरता छोड़कर घर से निकलें, तपती गर्मी में अपने मुहल्ले-कस्बों के पारम्परिक जल संसाधनों- तालाब, बावड़ी, कुओं आदि से गाद निकालने, गहरीकरण व मरम्म्त का काम करें। यह गाद जिन खेतों में पहुँचेगी, वह सोना उगलेंगे ही। बस एक बात ख्याल करना होगा कि पारम्परिक जलस्रोतों के गहरीकरण में भारी मशीनों के इस्तेमाल से परहेज ही करें।

मध्य प्रदेश के छतरपुर जिले के अंधियारा तालाब की कहानी गौर करें- कोई दो दशक पहले वहाँ सूखा राहत के तहत तालाब गहराई का काम लगाया गया। इंजीनियर साहब ने तालाब के बीचों-बीच खूब गहरी खुदाई करवा दी। जब इंद्र देवता मेहरबान हुए तो तालाब एक रात में लबालब हो गया, लेकिन यह क्या? अगली सुबह ही उसकी तली दिख रही थी। असल में हुआ यूँकि बगैर सोचे हुई-समझे की गई खुदाई में तालाब की वह झिर टूट गई, जिसका सम्बन्ध सीधे इलाके के ग्रेनाईट भू संरचना से था। पानी आया और झिर से बह गया।

यहाँ जानना जरूरी है कि अभी एक सदी पहले तक बुन्देलखण्ड के इन तालाबों की देखभाल का काम पारम्परिक रूप से ढीमर समाज के लोग करते थे। वे तालाब को साफ रखते, उसकी नहर, बाँध, जल आवक को सहेजते- एवज में तालाब की मछली, सिंघाड़े और समाज से मिलने वाली दक्षिणा पर उनका हक होता।

इसी तरह प्रत्येक इलाके में तालाबों को सहेजने का जिम्मा समाज के एक वर्ग ने उठा रखा था और उसकी रोजी-रोटी की व्यवस्था वही समाज करता था, जो तालाब के जल का इस्तेमाल करता था। तालाब तो लोक की संस्कृति, सभ्यता का अभिन्न अंग हैं और इन्हें सरकारी बाबुओं के लाल बस्ते के बदौलत नहीं छोड़ा जा सकता।

अभी बादल बरसने में कम-से-कम साठ दिन बाकी है, यदि समाज सप्ताह में केवल एक दिन अपने पुरखों की देन जल संसाधनों की सफाई के लिये घर से बाहर निकले और उनमें गन्दा पानी जाने से रोकने के प्रयास करे तो जान लें कि आने वाले दिन ‘पानीदार’ होंगे।

Posted by
Get the latest news on water, straight to your inbox
Subscribe Now
Continue reading