यमुना और टौंस के अस्तित्व पर भारी संकट

14 Mar 2016
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यमुना, टौंस, रूपिन तथा सूपीन की घाटियाँ अपनी जल प्रचुरता, उत्पादकता, वन्य जीव-जन्तुओं के स्वाभाविक आवास, दुर्लभ वनस्पतियों की बहुतायत तथा प्राकृतिक सौन्दर्य के चलते मानवीय बस्तियों की बसावट के लिये सदियों से ही आकर्षण का केन्द्र रही। फल-सब्जी उत्पादन एवं भेड़ पालन ने क्षेत्र के लोगों को आय के नए स्रोत मुहैया कराए। वहीं इसके साथ ही तीव्र शहरीकरण के साथ बदलती जीवनशैली भी माँगों को पूरा करने के लिये प्राकृतिक संसाधनों पर शोषणकारी दबाव ने अपेक्षाकृत शान्त रहने वाली यमुना एवं टौंस की घाटियों में उथल-पुथल का दौर शुरू कर दिया। हिमालयी क्षेत्रों में उत्तराखण्ड से निकलने वाली सदानीर नदियाँ-गंगा तथा यमुना देश के करोड़ों लोगों की पेयजल तथा सिंचाई की जरूरत को पूरा कर रहीं हैं किन्तु अवैज्ञानिक एवं बेरोक-टोक दोहन ने नदियों का अस्तित्व ही खतरे में डाल दिया है। जलविद्युत दोहन करने की धन पिपासु हवस ने गंगा के साथ ही यमुना घाटी में भी इन परियोजनाओं की जद में आ रहे हजारों लोगों के जीवन में भारी उथल-पुथल का खतरा पैदा कर दिया है।

देश की राजधानी दिल्ली में पहुँचकर हालांकि यमुना का पानी विषैले जल में तब्दील हो गया है। हरियाणा से गुजरती यमुना में शहरों के गन्दे जल एवं औद्योगिक अपशिष्टों के प्रवाहित होने से ये स्थिति आ रही है। किन्तु उत्तराखण्ड की सीमा के भीतर यमुना का प्राकृतिक स्वरूप अब तक काफी हद तक बना हुआ है।

हिमालय के बन्दरपूँछ शिखर के दक्षिण-पश्चिम में स्थित बन्दरपूँछ हिमनद (ग्लेशियर) से यमुना का उद्गम है। टौंस नदी यमुना की सहायक नदी है जो बन्दरपूँछ शिखर के ही पश्चिमी ढाल से निकल कर रूपिन तथा सूपीन दो सहायक नदियों का जल समेटे कालसी में यमुना में समाती है। उत्तरकाशी तथा देहरादून जिलों से गुजरते हुए यमुना हरियाणा में प्रवेश करती है।

यहाँ यह जिक्र करना भी प्रासंगिक है कि यमुना और उसकी सहायक नदी टौंस में वर्ष भर पर्याप्त जल बनाए रखने में इनमें मिलने वाले दर्जनों गाड़-गधेरे हैं वहीं चत्रागाड़, धरमीगाड़, दारागाड़, बेनालगाड़, चरत की गाड़, बगानी गाड़, लभराडा गाड़ कोटी नाला आदि पश्चिमी तरफ से और पाबर नदी पूर्वी दिशा से टौंस नदी में मिलकर इसके जल प्रवाह तंत्र को बनाते हैं। इसके साथ ही चान्दनी गाड़, सितकी गाड़, शलोन गाड़, मुख्यतः टौंस के दाहिने प्रवाह तंत्र की ताकत है।

यमुना, टौंस, रूपिन तथा सूपीन की घाटियाँ अपनी जल प्रचुरता, उत्पादकता, वन्य जीव-जन्तुओं के स्वाभाविक आवास, दुर्लभ वनस्पतियों की बहुतायत तथा प्राकृतिक सौन्दर्य के चलते मानवीय बस्तियों की बसावट के लिये सदियों से ही आकर्षण का केन्द्र रही। फल-सब्जी उत्पादन एवं भेड़ पालन ने क्षेत्र के लोगों को आय के नए स्रोत मुहैया कराए।

वहीं इसके साथ ही तीव्र शहरीकरण के साथ बदलती जीवनशैली भी माँगों को पूरा करने के लिये प्राकृतिक संसाधनों पर शोषणकारी दबाव ने अपेक्षाकृत शान्त रहने वाली यमुना एवं टौंस की घाटियों में उथल-पुथल का दौर शुरू कर दिया। पूँजीपतियों, धन्नासेठों और रसूखदारों ने इन क्षेत्रों की बेशकीमती जमीन हथियाने के साथ ही कृषि एवं बागवानी हेतु समृद्ध कही जाने वाली पट्टियों को उजाड़ना शुरू कर दिया है।

यहाँ प्रासंगिक विषय, क्षेत्र के जलस्रोतों के दोहन के लिये सामने आई नीति है। जिसके जमीन पर उतारने में यमुना, टौंस, रूपीन तथा सूपीन घाटियों के बाशिन्दो के न केवल प्राकृतिक एवं परम्परागत अधिकार लुट जाने के कगार पर है वरन पर्यावरण को भी गम्भीर खतरे की आशंका है। उत्तराखण्ड जलविद्युत निगम के मुताबिक यमुना तथा टौंस नदी घाटी में निर्माणाधीन एवं प्रस्तावित जलविद्युत परियोजनाएँ 29 हैं। उत्तरकाशी एवं देहरादून जिलों के अन्तर्गत बनने वाली इन परियोजनाओं की कुल क्षमता 1618.61 मेगावाट है।

यमुना की प्रमुख सहायक टौंस और इन नदियों में मिलने वाले गाड़-गधेरों के जल के अविरल प्रवाह एवं जलस्रोतों पर सदियों से निर्भर स्थानीय निवासियों की जीवन परिस्थितियों पर व्यापक प्रभाव डालने वाली जलविद्युत परियोजनाओं ने गहरी आशंका पैदा कर दी है।

यमुना नदी पर उत्तरकाशी एवं देहरादून जिलों में जलविद्युत परियोजनाओं की सख्या जहाँ 08 है वहीं टौंस पर 14 परियोजनाओं का खाका तैयार है। बाकी 07 परियोजनाएँ सूपीन, अगलाड़ नदियों/गाड़ों पर बनाई जानी है। सवाल उठ रहा है कि नदी-घाटी में हर किलोमीटर के फासलों पर प्राकृतिक जलस्रोतों को परियोजनाओं के नाम पर निर्माण कम्पनियों के कब्जे में देने के बाद लोगों की जीवन परिस्थितियों पर पड़ रहे दुष्प्रभावों की सरकारें अनदेखी करते हुए उर्जा प्रदेश की धुन में उजाड़ का दृश्य पैदा करने पर क्यों तुली हुई है।

जल विद्युत योजनाओं की जद में आ रहे क्षेत्रों में जनसुनवाई को निर्माण कम्पनियाँ कितनी अहमियत देती हैं, इसका खुलासा पहले भी कई बार हो चुका है। टौंस नदी पर हनोल-त्यूणी (60 मेगावाट) परियोजना में भी जनसुनवाई एवं पर्यावरण सुनवाई को खानापूर्ति के लिये लगातार कोशिश हुई। हनोल-त्यूणी परियोजना का निर्माण निजी क्षेत्र की कम्पनी सनफ्लैग पावर लिमिटेड कर रही है। परियोजना में देहरादून जिले के कूणा एवं चातरा और उत्तरकाशी जिले के भंखवाड़ा, कुकरेड़ा तथा बेगल गाँवों के 36 परिवार प्रभावितों में बताए गए हैं। सूचना का अधिकार अधिनियम के तहत जानकारी मिली है कि 425.42 करोड़ की लागत वाली हनोल-त्यूणी जल विद्युत परियोजना में भंखवाड़ (कुंजरा) में अनुसूचित जाति के काश्तकारों की 0.336 हेक्टेयर जमीन एवं कुकरेड़ा (तलवाड़), भंखवाड़, बेगल के सामान्य जाति के परिवारों की 1.796 हेक्टेयर जमीन और चातरा तथा कूणा के ग्रामवासियों की 2.294 हेक्टेयर निजी भूमि की अधिग्रहण की प्रक्रिया चल रही है।

परियोजना निर्माण के लिये कुल 34.858 हेक्टेयर वन भूमि प्रस्तावित है। वहीं वन विभाग की आरक्षित वन भूमि से 0.759 हेक्टेयर क्षेत्र 10 वर्षों के लीज पर कम्पनी के हवाले किया जा चुका है। परियोजना में 18.38 हेक्टेयर क्षेत्र पूरी तरह बैराज में डूब जाएगा। किन्तु पर्यावरण जनसुनवाई की सूचना को सार्वजनिक करने को उत्तराखण्ड पर्यावरण संरक्षण एवं प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने अंग्रेजी के ‘द टाइम्स ऑफ इण्डिया’ समाचार पत्र को सर्वाधिक उपयुक्त पाया।

प्रभावितों की श्रेणी में आ रहे गाँवों में शायद ही ‘द टइम्स ऑफ इण्डिया’ के पाठक हों। यद्यपि अमर उजाला, दैनिक जागरण में भी जनसुनवाई की तिथियों की घोषणा की गई किन्तु प्रदेश में अच्छी प्रसार संख्या वाले किसी दूसरे समाचार पत्र की जगह दिल्ली से प्रकाशित अंग्रेजी के अखबार में प्रभावितों को सुचना देने की कवायद जनसुवाई के प्रति निर्माण कम्पनी एवं सरकारी एजेंसी के इरादों का पर्दाफाश करती है। खास बात यह है कि परियोजना की देहरादून जिले के प्रभावितों हेतु 24 मई 2007 की डडवाली में हुई जनसुनवाई में तय हुआ था कि जिन प्रभावित परिवारों की 50 प्रतिशत से अधिक जमीन परियोजना के अन्तर्गत आ रही है, उन्हें परियोजना प्रबन्धन को दूसरी जगह पर जमीन मुहैया करानी होगी तथा पुनर्वास भत्ता भी देय होगा। यह देखने वाली बात है कि परियोजना प्रभावितों को जमीन के बदले जमीन मुहैया कराने से पल्ला झाड़ चुकी सरकार इस मामले में कम्पनी को क्या निर्देश देती है।

केन्द्र सरकार के पर्यावरण एवं वन मंत्रालय के निर्देशों के अनुसार निर्माणक कम्पनियों को जनसुनवाई के दैरान किये गए वायदों को पूरा करना चाहिए। सनफ्लैश कम्पनी भी किस तरह इसे पूरा करती है यह वक्त ही बतलाएगा। यही नहीं टौंस नदी पर ही मोरी-हनोल (63 मेगावाट) जलविद्युत परियोजना का निर्माण निजी कम्पनी कृष्णा निटवेयर कर रही है। इसके अन्तर्गत बैनोल, देई मौताड़, सल्ला, मोरा, मांदाल, ओगमेर, विजोति, बिन्द्री, थकरीयान आदि गाँवों की भूमि आंशिक तौर पर आ रही है।

कम्पनी का दावा है कि परियोजना के तहत किसी भी गाँव का पुर्नवास या विस्थापन नहीं हो रहा है। वहीं मोरी ब्लॉक के 6 लोगों को परियोजना में रोजगार देने की बात भी कम्पनी कर रही है। किन्तु परियोजना निर्माण की प्रक्रिया में अभी तक न तो जन सुनवाई हुई, ना ही पर्यावरण एवं तकनीकी स्वीकृति मिली है। इसके बावजूद कम्पनी प्रशासन प्रभावितों पर दबाव बनाने पर लगा हुआ है।

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