योजनाओं के समायोजन से मिलेगा फायदा

5 Aug 2014
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राज्य सरकारें, अक्सर केंद्र सरकार पर यह इल्जाम लगाती रहती हैं कि केंद्र योजनाओं का विकेंद्रीकरण नहीं करता। योजना का सारा पैसा केंद्र का होता है और क्रियान्वयन की जिम्मेदारी राज्यों पर होती है। इसमें कई तरह की व्यावहारिक परेशानियां सामने आती हैं। खास तौर पर बजट के मामले में। केंद्र सरकार की कई लोककल्याणकारी योजनाएं चल रही हैं। इन योजनाओं में स्वास्थ्य, शिक्षा, सिंचाई, शहरी विकास, बुनियादी ढांचा, कौशल विकास जैसे क्षेत्रों में चलाए जा रहे सरकार के तमाम महत्वाकांक्षी कार्यक्रम भी शामिल हैं। इनमें से कई योजनाओं का स्वरूप और उद्देश्य एक जैसा है। एक जैसी योजनाओं के एक साथ चलने से कई बार भ्रम और उलझाव की स्थिति पैदा हो जाया करती है। सो सरकार ने इस भ्रम और उलझाव की स्थिति को रोकने और इस पर काबू पाने के लिए अब एक ही क्षेत्र की एक जैसी योजनाओं का आपस में विलय करके उनकी संख्या सीमित करने का फैसला किया है। अगले वित्तीय वर्ष से सिर्फ 66 योजनाएं चलेंगी, जिनमें 17 बड़ी परियोजनाएं होंगी। योजनाओं के समायोजन का यह प्रस्ताव चतुर्वेदी समिति की सिफारिशों के मुताबिक है, जिसने सरकार को सौंपी अपनी रिपोर्ट में विभिन्न योजनाओं को मिलाकर इनकी संख्या 147 से घटाकर 59 करने का सुझाव दिया था।

गौरतलब है कि सरकार ने केंद्र प्रायोजित योजनाओं के व्यापक विश्लेषण के लिए चतुर्वेदी समिति का गठन किया था। कमोबेश ऐसी ही राय केंद्रीय वित्त मंत्री पी. चिदंबरम और कृषि मंत्री शरद पवार की अध्यक्षता में गठित एक मंत्री समूह की भी थी। अपने पिछले बजट भाषण में वित्त मंत्री पी. चिदंबरम ने केंद्र प्रायोजित योजनाओं की संख्या घटाने पर जोर दिया था। बहरहाल, इन्हीं सब आधार पर आगे बढ़ते हुए कैबिनेट ने हाल ही में योजना आयोग के प्रस्ताव पर अपनी मुहर लगा दी। सरकार ने न सिर्फ योजनाओं का आपस में विलय करके अब इनकी संख्या घटा दी है, बल्कि विकास की इन योजनाओं को और भी ज्यादा युक्तिसंगत बनाए जाने पर जोर दिया जाएगा। हर योजना में दस फीसद कोष के खर्च करने के नियमों में लचीलापन होगा। यदि कोई राज्य किसी योजना में तब्दीली चाहता है तो उसकी भी गुंजाइश होगी। विकास और क्रियान्वयन के लिहाज से केंद्र सरकार की यह महत्वपूर्ण पहल है और इससे राज्यों के जिला प्रशासनों को अपने हिसाब से कार्य करने की सहूलियत मिल सकेगी। लेकिन ऐसा कोई फैसला करने से पहले राज्य को कैबिनेट से इसकी मंजूरी जरूरी होगी। जाहिर है कि सरकार के इस कदम से केंद्रीय योजनाओं के संदर्भ में नवीनता को प्रोत्साहन मिलेगा।

एक तरह से देखा जाए तो आयोग का प्रस्ताव हर लिहाज से सही है। आयोग का प्रस्ताव योजनागत व्यय घटाने या किसी आबंटन में कटौती का नहीं है, बल्कि इस कदम के पीछे मंशा सिर्फ यही है कि बहुत-सी योजनाओं का विलय करके कुल योजनाओं की तादाद कम कर दी जाए यानी इन योजनाओं का सही तरह से समायोजन हो जाए। दरअसल, एक ही मकसद या समान प्रकृति की कई-कई योजनाएं देश में अलग-अलग नाम से चल रही हैं, जिसका कोई औचित्य नहीं है। समन्वय करके उनकी संख्या यदि कम हो जाएगी तो इसके फायदे भी दिखेंगे। ये फायदे कई तरह के होंगे। मसलन, इन योजनाओं के क्रियान्वयन पर नजर रखना पहले से आसान हो जाएगा और इससे जहां निर्धारित लक्ष्य समय से पूरा करने में मदद मिलेगी, वहीं वित्तीय अनियमितताएं रोकने में भी सहूलियत होगी। सबसे बड़ी बात यह कि योजनाओं के अमल की लागत में कमी आ जाएगी। इस तरह सरकार के इस कदम से योजना का गैर-योजनागत व्यय भी घटेगा, जो कि आज के हालात में सबसे ज्यादा जरूरी है।

कुल मिलाकर केंद्रीय योजनाओं के समन्वय से काफी कुछ बदलने की उम्मीद है। फिर भी इस क्षेत्र में और भी बहुत कुछ करने की जरूरत है। देश में योजनाओं के निर्माण और संचालन की प्रक्रिया पूरी तरह से केंद्रीकृत है, जिसे भी बदले जाने की दरकार है। राज्य सरकारें, अक्सर केंद्र सरकार पर यह इल्जाम लगाती रहती हैं कि केंद्र योजनाओं का विकेंद्रीकरण नहीं करता। योजना का सारा पैसा केंद्र का होता है और क्रियान्वयन की जिम्मेदारी राज्यों पर होती है। इसमें कई तरह की व्यावहारिक परेशानियां सामने आती हैं। खास तौर पर बजट के मामले में। कई बार प्रस्तावित या रुका हुआ आबंटन पाने के लिए राज्यों के मंत्रियों और अफसरों को केंद्रीय मंत्रालयों के चक्कर काटने पड़ते हैं। यही वजह है कि अक्सर यह मांग उठती रहती है कि कुछ योजनाएं राज्यों के स्तर पर भी बनें। यही नहीं, योजनागत राशि के लिए भी राज्य सरकारें केंद्र पर कम से कम निर्भर हों। यानी सुधार की गुंजाइश अभी भी है। उम्मीद की जानी चाहिए कि आगे चलकर सरकार इस दिशा में भी जरूरी कदम उठाएगी।

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